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भाजपा को अपनी चुनौतियां पता है

अजीत द्विवेदी
कोई भी चुनाव आसान नहीं होता है और भारतीय लोकतंत्र की यह खूबी रही है कि जिस पार्टी या नेता ने आसान मान कर चुनाव लड़ा उसे हार का सामना करना पड़ा। भारत में चुनावों की एक खासियत यह भी रही है कि जिस समय कोई पार्टी जीत के अति आत्मविश्वास में रही उसी समय मतदाताओं ने उसको सबसे बड़ा झटका दिया। राष्ट्रीय चुनावों के इतिहास में 2004 के चुनाव को इसकी मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है। उस समय भाजपा अपनी जीत के सर्वाधिक भरोसे में थी लेकिन हाशिए में पहुंच गई कांग्रेस ने उसे हरा दिया। अगले चुनाव को लेकर भी भाजपा के नेता उसी तरह आत्मविश्वास में हैं। पंरतु इस बार फर्क यह है कि भाजपा को अपनी चुनौतियों का पता है। उसे एकजुट विपक्ष की ताकत और नरेंद्र मोदी के 10 साल के राज को लेकर बन रहे सत्ताविरोधी माहौल का अंदाजा भी है। तभी वह चुनाव के एक साल पहले से तैयारियों में जुट गई है।

भाजपा की मुश्किल दो तरह की है। एक मुश्किल अंदरूनी है और दूसरी बाहरी। बाहरी मुश्किल का मतलब विपक्ष की चुनौती से है। इससे पहले 2019 के चुनाव में विपक्ष चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। लोकसभा चुनाव पुलवामा कांड और उरी व बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक की पृष्ठभूमि में हुए थे। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर थी। साथ ही अपनी सरकार के पहले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने दर्जनों योजनाएं शुरू की थीं, जिनसे आम लोगों में अपना जीवन बदल जाने की उम्मीद बंधी थीं। लोग अच्छे दिन आने का इंतजार कर रहे थे और उनको लग रहा था कि सरकार की योजनाएं अगर पूरी होती हैं तो निश्चित रूप से अच्छे दिन आएंगे। पहले पांच साल में सरकार का फोकस राजनीति पर कम और योजनाओं पर ज्यादा था।

तभी लोगों ने पहले से ज्यादा बहुमत देकर नरेंद्र मोदी को दूसरी बार प्रधानमंत्री बनाया। मोदी का दूसरा कार्यकाल लोगों की उम्मीदें पूरी करने वाला नहीं साबित हुआ, बल्कि विवादित राजनीतिक फैसलों का रहा और विपक्षी पार्टियों की साख बिगाडऩे और उनके खिलाफ कार्रवाई करने वाला रहा। पहले कार्यकाल में जो योजनाएं शुरू हुई थीं उनको पूरा करने का प्रयास कहीं नहीं दिखा। काला धन वापस नहीं आया। स्मार्ट सिटी नहीं बनी। मेक इन इंडिया का अभियान कहीं नहीं पहुंचा। महंगाई कम होने की बजाय आसमान छूने लगी। पेट्रोल-डीजल के दाम कम नहीं हुए। डॉलर की कीमत 80 से ऊपर पहुंच गई। स्वच्छता अभियान और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ नारा बन कर रह गया। सो, दूसरा कार्यकाल मोहभंग वाला रहा। भले वह प्रत्यक्ष नहीं दिख रहा हो या सोशल मीडिया में हिंदू-मुस्लिम के नैरेटिव से उसे दबाया जा रहा हो लेकिन सत्ता विरोध की अंतर्धारा हकीकत है। भाजपा के नेता इस बात को समझ रहे हैं।

दूसरी बाहरी मुश्किल विपक्ष का गठबंधन है। भाजपा ने पहले इसे गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन पटना की बैठक के बाद उसे गंभीरता समझ में आई। पहली बार उसको लगा कि विपक्षी पार्टियां अपने निजी हितों को छोड़ कर साथ आ सकती हैं। सचमुच आमने सामने का मुकाबला बन सकता है। तभी उसके बाद विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास तेज हुआ, जिसके तहत महाराष्ट्र में एनसीपी को तोड़ा गया। दूसरा काम यह हुआ कि ठंडे बस्ते में डाल दिए गए एनडीए को झाड़-पोंछ कर मुकाबले के लिए तैयार किया गया। दिल्ली में एनडीए के नए व पुराने सहयोगियों की बड़ी बैठक हुई, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए। पिछले चुनाव से पहले ऐसी कोई कवायद नहीं हुई थी क्योंकि इसकी जरूरत नहीं महसूस की गई थी। तब विपक्ष एकजुट नहीं था और भाजपा के पुराने सहयोगी उसके साथ थे। पंजाब में अकाली दल, बिहार में जनता दल यू और महाराष्ट्र में शिव सेना उसके साथ थी। आज वह स्थिति नहीं है इसलिए भाजपा को भी मजबूत गठबंधन बनाने की जरूरत महसूस हो रही है।

तीसरी बाहरी मुश्किल नैरेटिव की है। नरेंद्र मोदी विकास के दावे और विपक्ष के भ्रष्ट होने के नैरेटिव पर चुनाव जीते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने मुंह से कहा था कि वे ऊपर से नीचे तक राजनीति की सफाई करेंगे। लेकिन राजनीति की सफाई नहीं हुई। उलटे समय के साथ संसद के दोनों सदनों में दागी और करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ती गई। दूसरी पार्टियों के भी जितने आरोपी और दागी नेता थे उनमें से बहुत से नेता भाजपा में शामिल हो गए। प्रधानमंत्री आज भी विपक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं लेकिन अब ये आरोप लोगों के मन में विपक्ष के प्रति गुस्सा नहीं पैदा कर रहे हैं, बल्कि इनसे भाजपा का अपना दोहरा रवैया जाहिर हो रहा है। विकास के मामले में भी भारत पिछड़ गया है तभी 2022 के लिए तय किए तमाम लक्ष्य 2047 तक बढ़ा दिए गए हैं। अब भारत को अमृतकाल में यानी अगले 24 साल में विकसित बनाने का वादा किया जा रहा है। परंतु यह ध्यान रखने की बात है कि 10 साल राज करने के बाद कोई भी सरकार सिर्फ वादों पर वोट नहीं ले सकती है। सो, भाजपा के पास नैरेटिव की कमी है।

इन बाहरी मुश्किलों के साथ साथ भाजपा के सामने आंतरिक चुनौतियां भी हैं। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की हार में इस आतंरिक चुनौती का बड़ा हाथ रहा। असल में भाजपा के 10 साल के शासन में दो काम मुख्य रूप से हुए हैं। एक सत्ता का केंद्रीकरण हुआ है। भाजपा जैसी विकेंद्रित पार्टी के लिए यह नई बात थी। जिस पार्टी में छोटे नेता और कार्यकर्ता की पहुंच भी शीर्ष तक थी वहां सब कुछ चंद लोगों के हाथ में सिमट गया। थोड़े समय के बाद यह आम कार्यकर्ता और मध्य व निचले क्रम के नेताओं के लिए बहुत बेचैनी पैदा करने वाला था। उसके बाद दूसरा काम दूसरी पार्टियों से तोड़ कर नेताओं को भाजपा में लाना था।

दूसरी पार्टियों के नेताओं और लैटरल एंट्री से पार्टी में आने वाले यानी रिटायर अधिकारियों आदि की वजह से पार्टी के पुराने और प्रतिबद्ध नेताओं के लिए अवसर कम हुए। उनको लगने लगा कि भाजपा में उनकी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हो सकती हैं। ध्यान रहे किसी पार्टी का टूटना या नेताओं का पार्टी छोडऩा बुरा है लेकिन उससे ज्यादा बुरा होता है कि पार्टी के अंदर नेताओं व कार्यकर्ताओं का उत्साह खत्म होना, यही भाजपा के साथ हुआ है। नेताओं का उत्साह खत्म है और उनके अंदर कोई बड़ा मोटिवेशन नहीं बचा है। दूसरे नेताओं के आने और राज्यों में सरकार बनाने के लिए होने वाली जोड़-तोड़ ने वैचारिक भटकाव पैदा किया और इससे भी आम नेता, कार्यकर्ता और यहां तक कि प्रतिबद्ध मतदाता भी प्रभावित हुआ है।

तभी सब कुछ होने के बावजूद भाजपा मुश्किल में है। भाजपा सबसे बड़ी और मजूबूत पार्टी है, मोदी के मुकाबले कोई मजबूत विपक्षी नेता नहीं है और सूचना प्रवाह को नियंत्रित करने का पूरा साधन भाजपा के पास है। फिर भी उसके लिए लड़ाई कठिन हो गई है। 10 साल में सरकार ने क्या किया बनाम 24 साल में क्या करेंगे के बीच तुलना हो रही है। भाजपा की ओर से जन कल्याण के काम गिनाए जा रहे हैं लेकिन जो काम भाजपा बता रही है वही काम उससे बेहतर तरीके से राज्यों में सरकारें कर रही हैं। इसलिए उसमें अब कोई नयापन नहीं है। उलटे धीरे धीरे किसान आंदोलन से लेकर पहलवान आंदोलन और मणिपुर हिंसा से लेकर चीन के अतिक्रमण तक की बातें लोगों के दिमाग में जगह बना रही हैं। भाजपा के लिए अच्छी बात यह है कि उसके नेता इन चुनौतियों को समझ रहे हैं इसलिए उनके निपटने के उपाय कर रहे हैं। एनडीए को पुनर्जीवित करना उन्हीं उपायों का एक हिस्सा है।

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