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समान कानून पर थम गई चर्चा

अजीत द्विवेदी

राष्ट्रीय विधि आयोग को समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी पर 80 लाख से एक करोड़ के बीच सुझाव मिले हैं। आयोग ने 14 जून को लोगों से अपील की थी कि वे बताएं कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए या नहीं। अगर होनी चाहिए तो क्यों और नहीं होनी चाहिए तो उसके पीछे क्या तर्क है। पहले एक महीने का समय दिया गया था लेकिन बाद में इसे दो हफ्ते और बढ़ा दिया गया। इस बीच 27 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश में भाजपा के चुनाव अभियान का आगाज करते हुए समान नागरिक संहिता पर बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा, ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड के नाम पर लोगों को भड़काया जा रहा है। एक घर दो कानून से घर नहीं चल पाएगा। भारत के संविधान में भी नागरिक के समान अधिकार की बात की गई है। प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद पूरे देश में समान कानून पर चर्चा शुरू हो गई। चारों तरफ इस पर सम्मेलन और सेमिनार होने लगे। संसदीय समिति की बैठक भी हुई और तमाम सामाजिक व धार्मिक संगठनों ने अपनी राय विधि आयोग को भेजी।

तब ऐसा लग रहा था कि सरकार संसद के मानसून सत्र में इस बिल को पेश कर सकती है। हालांकि उस समय तक विधि आयोग का काम पूरा नहीं हुआ था और न उसने कोई सिफारिश की थी। यहां तक कि सरकार ने बिल का मसौदा भी तैयार नहीं किया था। लेकिन तब सूत्रों के हवाले से मीडिया में ऐसी खबर आई थी कि उत्तराखंड सरकार की ओर से तैयार कराए जा रहे बिल के मसौदे को ही भारत सरकार भी अपना सकती है। उत्तराखंड सरकार के लिए समान नागरिक संहिता का मसौदा सुप्रीम कोर्ट की रिटायर जज जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता वाली कमेटी कर रही है। पिछले महीने इस कमेटी के सदस्यों ने विधि आयोग से भी मुलाकात की थी। तब कहा गया था कि 15 जुलाई तक जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई कमेटी अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप देगी।

हैरानी की बात है कि अब जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई कमेटी की ओर से बनाए जा रहे मसौदे की भी कोई चर्चा नहीं हो रही है। कमेटी ने अभी तक रिपोर्ट राज्य सरकार को नहीं सौंपी। सो, रेफरेंस के लिए भी किसी के पास कोई मसौदा नहीं है। विधि आयोग को जो एक करोड़ सुझाव मिले हैं उनकी छंटनी और विषय के हिसाब से ब्योरेवार उनको व्यवस्थित करना लंबा और समय खाने वाला काम है। इसी तरह 27 जून के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार भी समान नागरिक संहिता के बारे में कोई बयान नहीं दिया है। कोई और मंत्री या भाजपा का नेता भी इस बारे में नहीं बोल रहा है और इस पर होने वाले सेमिनार, सम्मेलन आदि भी अचानक बंद हो गए हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ है? क्या इस कानून को लागू करने के रास्ते में आने वाली बाधाओं या विरोधाभासों की वजह इसको स्थगित कर दिया गया है या सरकार की कोई मंशा थी, जो इतनी चर्चा से ही पूरी हो गई है और उसके बाद उसे स्थगित कर दिया गया है?

असल में समान नागरिक संहिता के बारे में यह आम धारणा है कि इसका सबसे ज्यादा विरोध मुस्लिम समुदाय करेगा। आजादी के बाद से भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने और 1980 के बाद से भाजपा ने यह धारणा बनाई है कि कांग्रेस की सरकारों ने अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने के लिए इसे लागू नहीं किया, जबकि संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में इसको शामिल किया गया है। लेकिन हकीकत इस प्रचारित धारणा से अलग है। यह बात पहली बार कानून व न्याय मामले की संसदीय समिति की राय से जाहिर हुई। भाजपा सांसद सुशील मोदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने तीन जुलाई को अपनी बैठक के बाद कहा कि देश के आदिवासियों को समान नागरिक संहिता से रियायत मिलनी चाहिए। यानी उनको इसके दायरे से बाहर रखना चाहिए। अब सोचें, जब यह धारणा बनाई गई है कि मुस्लिम समुदाय को इससे सबसे ज्यादा दिक्कत होगी तो फिर आदिवासियों को इससे बाहर रखने की बात कहां से आई? जाहिर है आदिवासी समुदाय को भी इससे दिक्कत है।

इसके बाद सिख समुदाय ने ऐसे किसी भी प्रयास का विरोध करने का ऐलान किया। सिखों की सबसे बड़ी और पवित्र संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने कहा कि समान नागरिक संहिता सिख संस्कृति, उसकी पंरपरा और उसके धार्मिक रीति-रिवाज को प्रभावित करेगी। सिखों के बाद ईसाई समुदाय ने इसका विरोध किया और विरोध की सबसे तीखी आवाज पूर्वोत्तर से आई। वहां मेघालय, नगालैंड, मिजोरम आदि राज्यों में भाजपा की सहयोगी पार्टियों ने कहा कि उनको समान नागरिक संहिता कबूल नहीं है। बाद में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी विधि आयोग को भेजी गई अपनी सलाह में इस तरह के किसी प्रयास का विरोध किया। सबसे दिलचस्प बात यह है कि कट्टरपंथी हिंदू बौद्धिकों ने भी इसका विरोध किया। उनका कहना है कि यह कानून मुस्लिम समाज में प्रचलित बहुविवाह या हलाला जैसी प्रथा को समाप्त करने की बजाय हिंदू यूनाइटेड फैमिली यानी एचयूएफ के कांसेप्ट को खत्म कर देगा। कई हिंदुवादी विचारकों ने लिखा कि पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के समय लाए गए हिंदू कोड बिल से भी हिंदुओं की जो परंपरा बच गई थी वह इससे खत्म हो जाएगी।

जाहिर है इस कानून से जितनी दिक्कत मुस्लिम समुदाय को है उतनी ही दिक्कत आदिवासी समुदायों को है, उतनी ही दिक्कत सिख समुदाय को है और उतनी ही दिक्कत ईसाई समुदाय को है। सो, मोटे तौर पर कहें तो करीब 30 फीसदी आबादी ने समान नागरिक कानून बनाने की पहल का विरोध किया है। इसके अलावा बड़ी संख्या हिंदुवादी लोगों की भी है, जो मसौदा देखे बगैर इसके विरोध में उतर आए हैं। तभी सरकार के सामने दुविधा है। अगर वह आदिवासी या किसी भी समुदाय को कोई रियायत देती है तो समान नागरिक संहिता का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यूनिफॉर्म कानून का मतलब है कि वह यूनिवर्सल होना चाहिए। समान रूप से देश के हर नागरिक के लिए लागू होना चाहिए। लेकिन विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेने का अधिकार और संपत्ति का बंटवारा ये चार ऐसी चीजें हैं, जिन पर एकसमान कानून बनाना बहुत मुश्किल है। हर जातीय समुदाय की अपनी अपनी परंपराएं हैं, जिनको छोड़ना उनके लिए आसान नहीं होगा। इसलिए इस पर सलाह मशविरा करके आम राय बनाने की बजाय कानून थोपने की कोशिश कामयाब नहीं हो सकती है।

समान नागरिक कानून को लेकर यहां वहां जो विरोध हुए और उनमें जो तर्क दिए गए उन पर विचार की जरूरत है। जैसे यह कहा गया कि कई आदिवासी समुदायों में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित है। मिजोरम के जियोना चाना की मिसाल दी गई, जिनकी 39 पत्नियां और 167 बेटे, बेटियां, पोते, पोतियां हैं। इसी तरह यह भी मिसाल दी गई कि सिक्किम में कम होती आबादी की वजह से राज्य सरकार ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहन दे रही है। अभी मसौदा नहीं आया है इसलिए पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि इसमें आदिवासियों के लिए क्या प्रावधान हैं लेकिन उससे पहले यह आशंका जाहिर की गई कि समान नागरिक कानून से आदिवासियों का विशेष दर्जा समाप्त हो जाएगा और उनकी जमीन लेने का रास्ता साफ हो जाएगा। यह आशंका जताई जा रही है कि आदिवासी संस्कृति पर तो असर होगा कि साथ ही उनकी जमीन का अधिग्रहण आसान हो जाएगा।

जो हो, ऐसा लग रहा है कि सरकार को इसके रास्ते की व्यावहारिक समस्याएं दिख रही हैं। ध्यान रहे व्यावहारिक समस्याओं की वजह से ही केंद्र सरकार अभी तक संशोधित नागरिकता कानून को लागू नहीं कर पाई है। कानून पास होने के करीब चार साल बाद भी सरकार इसे लागू करने के नियम नहीं बना पाई है। इसी तरह से समान नागरिक कानून लागू करना आसान नहीं दिख रहा है। तभी ऐसा लग रहा है कि सरकार ने चर्चा छेड़ दी ताकि मुस्लिम, ईसाई आदि समुदाय के लोग इस पर प्रतिक्रिया दें तो उन पर दोष डाल कर ध्रुवीकरण का एजेंडा चलाया जाए। इससे ज्यादा इसका कोई मकसद नहीं दिख रहा है। लेकिन यह भी सच है कि अगर किसी नाटक के पहले दृश्य में बंदूक दिखती है तो तीसरे या चौथे दृश्य तक वह बंदूक चलती जरूर है। सो, अगर सरकार ने समान नागरिक संहिता का जिक्र छेड़ा है तो देर-सबेर इसे लागू जरूर किया जाएगा। वह समय कब आएगा, यह देखने की बात होगी।

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