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मजदूर ही तो हैं..खुदकुशी करते हैं तो क्या ?

अपना एमपी गज्जब है

अरुण दीक्षित
अपना एमपी एक बार फिर देश के अगुआ राज्यों की सूची में है! इस बार उसका नंबर तीसरा आया है! छोटी बच्चियों व महिलाओं के प्रति अपराध और आदिवासियों पर अत्याचार के बाद अब उसने रोज कमा कर खाने वाले मजदूरों की आत्महत्या के मामले में भी देश में अहम जगह बना ली है।बस तमिलनाडु और महाराष्ट्र उससे आगे हैं! बाकी सब उसके पीछे खड़े हैं। आप चौंकिए मत!यह सूची मैंने नही बनाई है। न ही आंकड़े मेरे हैं। यह काम किया देश की सरकार के गृह मंत्रालय ने ।उसके अधीन आने वाले नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने देश भर के आंकड़े लेकर यह रिपोर्ट तैयार की है। यह आंकड़े भी एक साल पुराने हैं। वजह सरकार को आंकड़े इक्कट्ठे करने और उन्हें छापने में समय जो लग जाता है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 8 साल(2014 से 2021) में एमपी में करीब 25486 मजदूरों ने खुदकुशी की है। इनमें बड़ी संख्या उन कामगारों की थी जो रोज कमाते और खाते थे। इस सूची में पहला नाम तमिलनाडु और दूसरा महाराष्ट्र का है। इस अवधि में पूरे देश में कुल 2,35,779 मजदूरों ने अपनी जान ली है।

चूंकि गरीब आदमी की गिनती वोट के अलावा किसी और में  नही होती है इसलिए हर साल होने वाली ये मौतें भी चर्चा का विषय नही बनती हैं। फिर इन पर चर्चा करे तो कौन करे। पर सवाल यह है कि आखिर वो कौन से वजह है जो देश भर में रोज बड़ी संख्या में मजदूर खुद की जान ले रहे हैं? अगर सरकारी घोषणाओं को देखें तो राज्यों की सरकारें अपने स्तर पर मजदूरों के लिए तमाम कल्याणकारी योजनाएं चलाती हैं। केंद्र सरकार की योजनाओं की सूची भी राष्ट्रपति भवन के अमृत उद्यान जैसी हरी भरी और खूबसूरत लगती है। मजदूर कल्याण कार्यक्रमों की सूची बहुत लंबी है। एमपी की सरकार ने भी कम कदम नही उठाए हैं। जब से डबल इंजन वाली सरकार बनी है तब से तो कल्याणकारी योजनाओं की घोषणाओं की गति भी काफी तेज हो गई है। खुद मुख्यमंत्री अक्सर अपनी कल्याणकारी योजनाओं का ब्यौरा देते रहते हैं।

सब अच्छा है। सरकार खूब अच्छी योजनाएं चला रही है। तो फिर रोज औसतन 9 मजदूर अपनी जान क्यों ले लेते हैं?ऐसा तो हो नही सकता कि  मजदूरों को आत्महत्या की लत लग गई हो? एमपी में तो केंद्र से ज्यादा योजनाएं चल रही हैं। इन योजनाओं के अलावा अभी तो केंद्र सरकार मुफ्त में अनाज भी बांट रही है। कहने को मनरेगा योजना भी चल रही है। राज्य सरकार ने तो मजदूरों के बच्चों की पढ़ाई के लिए अलग से स्कूल भी खोले हैं। घर बनाकर दिए हैं।रोजगार की गारंटी भी है। फिर मजदूर क्यों अपनी जान दे रहे हैं? प्रदेश के श्रम मंत्री इस मुद्दे पर खुद अपनी ही सरकार को खड़ा करते नजर आ रहे हैं। उनका कहना है कि प्रदेश के दिहाड़ी मजदूर देश के अन्य राज्यों में काम करने जाते हैं। वहां कुछ हो जाता है तो खुदकुशी कर लेते हैं। राज्य सरकार तो कई योजनाएं चला रही है। मजदूर की मौत पर संबल योजना में तीन से चार लाख रुपए मुआवजा देने का प्रावधान है।पेंशन भी जल्दी लागू करने वाले हैं।

मंत्री खुद मान रहे हैं कि रोजगार की तलाश में मजदूर प्रदेश से पलायन करते हैं। इससे यह भी साफ है कि राज्य सरकार कहे कुछ भी पर वह अपने दिहाड़ी मजदूरों को रोजगार नही दे पा रही है। अगर आप सरकारी दावों को देखेंगे तो आपको ऐसा लगेगा जैसे एमपी में रोजगार की सुनामी आई हुई है। बड़ी इन्वेस्टर्स मीट,अरबों रुपए के निवेश और लाखों रोजगार के सृजन का दावा पिछले डेढ़ दशक से हो रहा है। इसके बाद भी खुद मंत्री मजदूरों के पलायन की बात स्वीकार करते हैं।  एक बात और। राज्य सरकार इस ओर से पूरी तरह उदासीन दिखाई देती है। जिस राज्य में औसत 9 लोग रोज अपनी जान ले रहे हों,उस राज्य की सरकार ने इसे रोकने के लिए आजतक कोई कदम नहीं उठाया है।अगर कुछ किया होगा तो वह कागज में होगा। जमीन पर तो मंत्री जी का बोला सच है – हमारे राज्य से मजदूर पलायन करते हैं।

वैसे यह पहली बार नही है। अपना एमपी ऐसी कई बातों में देश में आगे चल रहा है जिन पर किसी भी हालत में गर्व नही किया जा सकता है। बच्चियों ,महिलाओं , आदवासियों और दलितों पर अत्याचार में वह सालों से आगे चल रहा है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक एमपी में हर 17 मिनट पर एक महिला अपराध का शिकार होती है। हर तीन घंटे में कोई एक छोटी बच्ची दुष्कर्म का शिकार होती है। आदिवासियों पर अत्याचार के औसतन 7 मामले रोज दर्ज होते हैं। जबकि राज्य में “मामा” की  सरकार है। बलात्कारी को फांसी दिए जाने का कानून भी पहले यहीं बना था। बच्ची के पैदा होने से लेकर उसकी पढ़ाई लिखाई और शादी तक की व्यवस्था मामा की सरकार करती है। देश में दहेज विरोधी कानून होने के बाद भी सरकारी खजाने से भरपूर दहेज भी देती है। बस वह एक जगह नाकाम हो जाती है। वह छोटी बच्चियों को सुरक्षा नही दे पाती है। उन्हें बलात्कारियों से नही बचा पाती है!  ऐसे में मजदूरों को कौन बचाए?कौन उनके बारे में गंभीरता से सोचे? पर कुछ भी हो अपना एमपी है तो गज्जब। यहां सरकार भगवान के घरों पर हजारों करोड़ तो खर्च कर सकती है। पर परेशानी में आकर खुद की ही जान लेने वाले मजदूरों के बारे में सोचने का समय उसके पास नही है। पर कुछ भी हो है तो एमपी गज्जब ही है कि नहीं।

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